तेल का खेल

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रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की वजह से भारत के तेल आयात पर संकट गहरा गया है।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, डीजल, पेट्रोल, घरेलू गैस और सीएनजी की कीमतों में बढ़ोतरी रोक दी गई थी। इसलिए कयास लगाए जा रहे थे कि चुनाव नतीजों की घोषणा के बाद इनकी कीमतों में भारी उछाल आएगा। हालांकि तेल कंपनियों ने एकदम से बढ़ोतरी नहीं की है, मगर करीब साढ़े तीन महीने बाद फिर से कीमतें बढ़नी शुरू हो गई हैं। कुछ दिनों पहले सीएनजी की कीमत पचास पैसे प्रति किलोग्राम बढ़ाई गई।

डीजल की थोक बिक्री में पच्चीस रुपए लीटर की बढ़ोतरी की गई। अब खुदरा कीमतों में करीब अस्सी पैसे की बढ़ोतरी की गई है। इसी तरह पेट्रोल की कीमतें भी करीब अस्सी पैसे बढ़ी हैं। घरेलू गैस के सिलेंडर पर पचास रुपए की बढ़ोतरी की गई है। इन कीमतों में इजाफा स्वाभाविक रूप से अपेक्षित था, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें एक सौ तीस डालर के आसपास पहुंच गर्इं, जो अब तक की सर्वाधिक है।

उधर रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की वजह से भारत के तेल आयात पर संकट गहरा गया है। विधानसभा चुनावों से पहले केंद्र और कुछ राज्य सरकारों ने उत्पाद शुल्क में कटौती करके कीमतों को काबू में लाने का प्रयास किया था। मगर यह मूल समस्या का स्थायी हल नहीं माना जा रहा था।

पिछले तीन महीने से तेल के दामों की समीक्षा रुकी रहने की वजह से तेल कंपनियों पर वित्तीय बोझ पड़ रहा था। इस दौरान उन पर काफी बोझ बढ़ चुका है। उनकी भरपाई कीमतों में बढ़ोतरी के जरिए ही संभव है। मगर सरकार ने थोक बिक्री के जरिए इसे साधना उचित समझा है, जिसके चलते एक प्रकार की विसंगति पैदा हो गई है। इस तरह औद्योगिक उत्पादन का खर्च और वस्तुओं की कीमतें बढ़ने की संभावना पैदा हुई है।

इन सबमें उपभोक्ता पर सबसे अधिक मार घरेलू गैस की कीमतें बढ़ने से पड़ रही है। सामान्य नागरिकों को अपने वाहन आदि के लिए तेल बेशक न खरीदना पड़ता हो, पर र्इंधन के लिए गैस सिलेंडर का रोजमर्रा इस्तेमाल करना पड़ता है। अब सिलेंडर की कीमत एक हजार रुपए के आसपास पहुंच गई है। केंद्र ने उज्ज्वला योजना के तहत गरीब परिवारों को मुफ्त सिलेंडर देने की उपलब्धि लंबे समय तक गिनाई थी, मगर वह सिलेंडर अब लोगों के गले की फांस बन चुका है। न तो वे उसे छोड़ कर पारंपरिक र्इंधन का विकल्प चुन पा रहे हैं और न उसमें गैस भराने का पैसा जुटा पा रहे हैं।

व्यावसायिक सिलेंडर की कीमत में कुछ दिनों पहले सौ रुपए से अधिक की बढ़ोतरी की गई थी। र्इंधन की कीमतों में बदलाव का असर सीधे लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर पड़ता है। न सिर्फ खाना पकाने के खर्च पर, बल्कि बहुत सारी उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में उछाल दर्ज होता है। खुद सरकार महंगाई पर काबू पाने के सारे तरीके आजमाने के बावजूद इसकी चुनौतियों से पार नहीं पा सकी है।

खुदरा महंगाई अब तक के सर्वाधिक अंक पर पहुंच चुकी है। दूसरी ओर लोगों की क्रय शक्ति क्षीण होती गई है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सूक्ष्म, लघु और मझोले कारोबार पटरी पर नहीं लौट पाए हैं। जिन लोगों के रोजगार छिन गए, उनका संकट अभी दूर होने के आसार नजर नहीं आ रहे। ऐसे में रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली चीजों के दाम बढ़ने से उनके जख्म और हरे हो रहे हैं।

रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की वजह से भारत के तेल आयात पर संकट गहरा गया है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनजर, डीजल, पेट्रोल, घरेलू गैस और सीएनजी की कीमतों में बढ़ोतरी रोक दी गई थी। इसलिए कयास लगाए जा रहे थे कि चुनाव नतीजों की घोषणा के बाद इनकी कीमतों में भारी उछाल आएगा। हालांकि तेल कंपनियों ने एकदम से बढ़ोतरी नहीं की है, मगर करीब साढ़े तीन महीने बाद फिर से कीमतें बढ़नी शुरू हो गई हैं। कुछ दिनों पहले सीएनजी की कीमत पचास पैसे प्रति किलोग्राम बढ़ाई गई। डीजल की थोक बिक्री में पच्चीस रुपए लीटर की बढ़ोतरी की गई। अब खुदरा कीमतों में करीब अस्सी पैसे की बढ़ोतरी की गई है। इसी तरह पेट्रोल की कीमतें भी करीब अस्सी पैसे बढ़ी हैं। घरेलू गैस के सिलेंडर पर पचास रुपए की बढ़ोतरी की गई है। इन कीमतों में इजाफा स्वाभाविक रूप से अपेक्षित था, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें एक सौ तीस डालर के आसपास पहुंच गर्इं, जो अब तक की सर्वाधिक है। उधर रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध की वजह से भारत के तेल आयात पर संकट गहरा गया है। विधानसभा चुनावों से पहले केंद्र और कुछ राज्य सरकारों ने उत्पाद शुल्क में कटौती करके कीमतों को काबू में लाने का प्रयास किया था। मगर यह मूल समस्या का स्थायी हल नहीं माना जा रहा था। पिछले तीन महीने से तेल के दामों की समीक्षा रुकी रहने की वजह से तेल कंपनियों पर वित्तीय बोझ पड़ रहा था। इस दौरान उन पर काफी बोझ बढ़ चुका है। उनकी भरपाई कीमतों में बढ़ोतरी के जरिए ही संभव है। मगर सरकार ने थोक बिक्री के जरिए इसे साधना उचित समझा है, जिसके चलते एक प्रकार की विसंगति पैदा हो गई है। इस तरह औद्योगिक उत्पादन का खर्च और वस्तुओं की कीमतें बढ़ने की संभावना पैदा हुई है। इन सबमें उपभोक्ता पर सबसे अधिक मार घरेलू गैस की कीमतें बढ़ने से पड़ रही है। सामान्य नागरिकों को अपने वाहन आदि के लिए तेल बेशक न खरीदना पड़ता हो, पर र्इंधन के लिए गैस सिलेंडर का रोजमर्रा इस्तेमाल करना पड़ता है। अब सिलेंडर की कीमत एक हजार रुपए के आसपास पहुंच गई है। केंद्र ने उज्ज्वला योजना के तहत गरीब परिवारों को मुफ्त सिलेंडर देने की उपलब्धि लंबे समय तक गिनाई थी, मगर वह सिलेंडर अब लोगों के गले की फांस बन चुका है। न तो वे उसे छोड़ कर पारंपरिक र्इंधन का विकल्प चुन पा रहे हैं और न उसमें गैस भराने का पैसा जुटा पा रहे हैं। व्यावसायिक सिलेंडर की कीमत में कुछ दिनों पहले सौ रुपए से अधिक की बढ़ोतरी की गई थी। र्इंधन की कीमतों में बदलाव का असर सीधे लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी पर पड़ता है। न सिर्फ खाना पकाने के खर्च पर, बल्कि बहुत सारी उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में उछाल दर्ज होता है। खुद सरकार महंगाई पर काबू पाने के सारे तरीके आजमाने के बावजूद इसकी चुनौतियों से पार नहीं पा सकी है। खुदरा महंगाई अब तक के सर्वाधिक अंक पर पहुंच चुकी है। दूसरी ओर लोगों की क्रय शक्ति क्षीण होती गई है। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सूक्ष्म, लघु और मझोले कारोबार पटरी पर नहीं लौट पाए हैं। जिन लोगों के रोजगार छिन गए, उनका संकट अभी दूर होने के आसार नजर नहीं आ रहे। ऐसे में रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली चीजों के दाम बढ़ने से उनके जख्म और हरे हो रहे हैं।

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